मुंशी प्रेमचंद्र की कहानी बड़े भाई साहब

 


 बड़े भाई साहब मुझसे पाँच साल बड़े थे , लेकिन केवल तीन दरजे आगे । उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था , जब मैंने शुरू किया ; लेकिन तालीम जैसे महत्त्व के मामले में वह जल्दीबाजी से काम लेना पसन्द न करते थे । इस भवन की बुनियाद खूब मजबूत डालना चाहते थे , जिस पर आलीशान महल बन सके । एक साल का काम दो साल में करते थे । कभी - कभी तीन साल भी लग जाते थे । बुनियाद ही पुख्ता न हो तो मकान कैसे पायेदार बने ? मैं छोटा था , वह बड़े थे । मेरी उम्र नौ साल की थी , वह चौदह साल के थे । उन्हें मेरी तंबीह और निगरानी का पूरा , जन्मसिद्ध अधिकार था । और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म कानून सम । वह स्वभाव से बड़े अध्ययनशील थे । हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर , कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों , कुत्तों , बिल्लियों की तसवीरें बनाया करते थे । कभी - कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस बीस बार लिख डालते । कभी एक शेर को बार - बार सुन्दर अक्षरों में नकल करते । कभी ऐसी शब्द - रचना करते , जिसमें न कोई अर्थ होता , न कोई सामंजस्य । मसलन एक बार उनकी कापी पर मैंने यह इबारत देखी - स्पेशल , अमीना , भाइयों - भाइयों , दरअसल , भाई - भाई , राधेश्याम , श्रीयुत् राधेश्याम , एक घंटे तक इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था । मैंने बहुत चेष्टा की कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूं लेकिन असफल रहा । और उनसे पूछने का साहस न हुआ । वह नवीं जमात में थे , मैं पाँचवीं में । उनकी रचनाओं को समझना मेरे लिए छोटा मुंह बड़ी बात थी । मेरा जी पढ़ने में बिल्कुल न लगता था । एक घंटा भी किताब लेकर बैठना ही पहाड था मौका  पाते ही हॉस्टल से निकल कर मैदान में आ जाता और कभी कंकड़ियाँ उछालता  कभी कागज की तितलियाँ उड़ाता और कहीं कोई साथी मिला तो पूछना ही क्या । कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे हैं , कभी फाटक पर सवार , उसे आगे - पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद उठा रहे हैं , लेकिन कमरे में आते ही भाई साहब का वह रौद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते । उनका पहला सवाल होता — ' कहाँ थे ? ' हमेशा यह सवाल उसी ध्वनि में पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था । न जाने मेरे मुँह से यह बात क्यों न निकलती कि जरा बाहर खेल रहा था । मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपना अपराध स्वीकार है और भाई साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज न था कि स्नेह और रोष से मिले हुए शब्द में मेरा सत्कार करें । ' इस तरह अँगरेजी पढ़ोगे , तो ज़िन्दगी भर पढ़ते रहोगे और एक हर्फ न आयेगा । अँगरेजी पढ़ना कोई हँसी - खेल नहीं है कि जो चाहे पढ़ ले , नहीं ऐरा - गैरा नत्थू खैरा भी सभी अंगरेजी के विद्वान् हो जाते । यहाँ दिन - रात आँखें फोड़नी पड़ती हैं और खून जलाना पड़ता है , तब कहीं यह विद्या आती है । और आती क्या है , हाँ कहने को आ जाती है । बड़े - बड़े विद्वान् भी शुद्ध अंगरेजी नहीं लिख सकते , बोलना तो दूर रहा । और मैं कहता हूँ तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देखकर भी सबक नहीं लेते । मैं कितनी मेहनत करता हूँ यह तुम अपनी आँखों से देखते हो , अगर नहीं देखते तो यह तुम्हारी आँखों का कुसूर है , तुम्हारी बुद्धि का कुसूर है । इतने मेले - तमाशे होते हैं , मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा ? रोज ही क्रिकेट और हॉकी मैच होते हैं , मैं पास नहीं फटकता । हमेशा पढ़ता रहता हूँ । उस पर भी एक - एक दरजे में दो - दो , तीन - तीन साल पड़ा रहता हूँ , फिर तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल - कूद में वक्त गंवाकर पास हो जाओगे ? मुझे तो दो - तीन साल लगते हैं । तुम उम्र भर इस दरजे में पड़े रहोगे । अगर इस तरह उम्र गँवानी है , तो बेहतर है , घर चले जाओ , मजे से गुल्ली - डंडा खेलो । दादा की गाढ़ी कमाई के रुपये क्यों बरबाद करते हो ? " मैं यह लताड़ सुनकर आँसू बहाने लगता । जवाब ही क्या था अपराध तो मैंने किया , लताड़ कौन सहे ? भाई साहब उपदेश की कला में निपुण थे ।

ऐसी - ऐसी लगती बात कहते , ऐसे - ऐसे सूक्ति - बाण चलाते कि मेरे जिगर के टुकड़े - टुकड़े हो जाते और हिम्मत टूट जाती । इस तरह जान तोड़ कर मेहनत करने की शक्ति मैं अपने में न पाता था । और उस निराशा में जरा देर के लिए मैं सोचने लगता — क्यों न घर चला जाऊँ । जो काम मेरे बूते से बाहर है , उसमें हाथ डालकर क्यों अपनी ज़िन्दगी खराब करूँ । मुझे अपना मूर्ख रहना मंजूर था , लेकिन उतनी मेहनत से मुझे तो चक्कर आ जाता था । लेकिन घंटे दो घंटे बाद निराशा के बादल फट जाते और इरादा करता कि आगे से खूब जी लगाकर पढूंगा । चटपट एक टाइमटेबिल बना डालता । बिना पहले से नक्शा बनाये , कोई स्कीम तैयार किये , काम कैसे शुरू करूँ ? टाइम - टेबिल में खेल - कूद की मद बिलकुल उड़ जाती । प्रातःकाल उठना , छः बजे मुँह - हाथ धो , नाश्ता कर , पढ़ने बैठ जाना । छः से आठ तक अँगरेजी , आठ से नौ तक हिसाब , नौ से साढ़े नौ तक इतिहास , फिर भोजन और स्कूल । साढ़े तीन बजे स्कूल से वापस होकर आधा घंटा आराम , चार से पाँच तक भूगोल , पाँच से छः तक ग्रामर , आधा घंटा होस्टल के सामने ही टहलना , साढ़े छः से सात तक अँगरेजी कम्पोज़ीशन , फिर भोजन करके आठ से नौ तक अनुवाद , नौ से दस तक हिन्दी , दस से ग्यारह तक विविध विषय , फिर विश्राम । मगर टाइम टेबिल बना लेना एक बात है , उस पर अमल करना दूसरी बात । पहले ही दिन से उसकी अवहेलना शुरू हो जाती । मैदान की वह सुखद हरियाली , हवा के वह हल्के - हल्के झोंके , फुटबाल की उछल - कूद , कबड्डी के दाँव - घात , बालीबाल की वह तेजी और फुरती मुझे अज्ञात और अनिवार्य रूप से खींच ले जाती और वहाँ जाते ही मैं सबकुछ भूल जाता । वह जानलेवा टाइम - टेबिल , वह आँख फोड़ पुस्तकें , किसी की याद न रहती और फिर भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर मिल जाता । मैं उनके साये से भागता , उनकी आँखों से दूर रहने की चेष्टा करता , कमरे में इस तरह दबे पाँव आता कि उन्हें खबर न हो । उनकी नजर मेरी ओर उठी और मेरे प्राण निकले । हमेशा सिर पर नंगी तलवार - सी लटकती मालूम होती । फिर भी जैसे मौत और विपत्ति के बीच में भी आदमी मोह और माया के बन्धन में जकड़ा रहता है , मैं फटकार और घुड़कियाँ खाकर भी खेलकूद का तिरस्कार न कर पाता ।

सालाना इम्तिहान हुआ । भाई साहब फेल हो गये , मैं पास हो गया और दरजे में प्रथम आया । मेरे और उनके बीच में केवल दो साल का अंतर रह गया । जी में आया , भाई साहब को आड़े हाथों लूँ आपकी वह घोर तपस्या कहाँ गयी ? मुझे देखिए , मजे से खेलता भी रहा और दरजे में अव्वल भी हूँ । लेकिन वह इतने दुःखी और उदास थे कि मुझे उनसे दिली हमदर्दी हुई और उनके घाव पर नमक छिड़कने का विचार ही लज्जास्पद जान पड़ा । हाँ , अब मुझे अपने ऊपर कुछ अभिमान हुआ और आत्माभिमान भी बढ़ा । भाई साहब का वह रोब मुझपर न रहा । आजादी से खेल - कूद में शरीक होने लगा । दिल मजबूत था । अगर उन्होंने फिर मेरी फजीहत की तो साफ कह दूंगा आपने अपना खून जलाकर कौन - सा तीर मार लिया । मैं तो खेलते - कूदते दरजे में अव्वल आ गया । जबान से यह हेकड़ी जताने का साहस न होने पर भी मेरे रंग - ढंग से साफ जाहिर होता था कि भाई साहब का वह आतंक मुझ पर नहीं है । भाई साहब ने इसे भाँप लिया - उनकी सहज - बुद्धि बड़ी तीव्र थी और एक दिन जब मैं भोर का सारा समय गुल्ली - डंडे की भेंट करके ठीक भोजन के समय लौटा तो भाई साहब ने मानो तलवार खींच ली और मुझ पर टूट पड़े - देखता हूँ , इस साल पास हो गये और दरजे में अव्वल आ गये तो तुम्हारा दिमाग चढ़ गया है ; मगर भाईजान , घमंड तो बड़ों - बड़ों का नहीं रहा तुम्हारी क्या हस्ती है ? इतिहास में रावण का हाल तो पढ़ा ही होगा । उसके चरित्र से तुमने कौन - सा उपदेश लिया । या यों ही पढ़ गये ? महज इम्तिहान पास कर लेना कोई चीज नहीं , असल चीज है बुद्धि का विकास । जो कुछ पढ़ो , उसका अभिप्राय समझो । रावण भूमंडल का स्वामी था । ऐसे राजाओं को चक्रवर्ती कहते हैं । आजकल अंग्रेजों के राज्य का विस्तार बहुत बढ़ा हुआ है , पर इन्हें चक्रवर्ती नहीं कह सकते । संसार के अनेक राष्ट्र अंग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार नहीं करते , बिल्कुल स्वाधीन हैं । रावण चक्रवर्ती राजा था । संसार के सभी महीप उसे कर देते थे । बड़े - बड़े देवता उसकी गुलामी करते थे । आग और पानी के देवता भी उसके दास थे , मगर उसका अंत क्या हुआ ? घमंड ने उसका नाम निशान तक मिटा दिया , कोई उसे एक चुल्लू पानी देने वाला भी न बचा । आदमी और जो कुकर्म चाहे करे , पर अभिमान न करे , इतराये नहीं । अभिमान किया , और दीन - दुनिया दोनों से

गया । शैतान का हाल भी पढ़ा ही होगा । उसे यह अभिमान हुआ था कि ईश्वर का उससे बढ़कर सच्चा भक्त कोई है ही नहीं । अन्त में यह हुआ कि स्वर्ग से नरक में ढकेल दिया गया । शाहे रूम ने भी एक बार अहंकार किया था । भीख माँग - माँगकर मर गया । तुमने तो अभी केवल एक दर्जा पास किया है , और अभी से तुम्हारा सिर फिर गया , तब तो तुम आगे बढ़ चुके । यह समझ लो कि तुम अपनी मेहनत से नहीं पास हुए , अंधे के हाथ बटेर लग गयी । मगर बटेर केवल एक बार हाथ लग सकती है , बार - बार नहीं लग सकती । कभी - कभी गुल्ली - डंडे से भी अंधा - चोट निशाना पड़ जाता है । इससे कोई सफल खिलाड़ी नहीं हो जाता । सफल खिलाड़ी वह है , जिसका कोई निशाना खाली न जाय । मेरे फेल होने पर न जाओ । मेरे दरजे में आओगे , तो दाँतों पसीना आ जायगा , जब अलजबरा और ज्यॉमेटी के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे , इंग्लिस्तान का इतिहास पढ़ना पड़ेगा । बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं , आठ - आठ हेनरी हो गुजरे हैं । कौन - सा कांड किस हेनरी के समय में हुआ , क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो ! हेनरी सातवें की जगह , हेनरी आठवाँ लिखा और सब नम्बर गायब ! सफाचट । सिफर भी न मिलेगा , सिफर भी । हो किस ख्याल में । दरजनों तो जेम्स हुए हैं , दरजनों विलियम , कोड़ियों चार्ल्स ! दिमाग चक्कर खाने लगता है । आँधी रोग हो जाता है । इन अभागों के नाम भी न जुड़ते थे । एक नाम के पीछे दोयम , चहारम , पंचम लगाते चले गये । मुझसे पूछते , तो दस लाख नाम बता देता । और ज्यॉमेट्री तो बस खुदा ही पनाह ! अ ब ज की जगह अ ज ब लिख दिया और सारे नंबर कट गये । कोई इन निर्दयी मुमतहिनों से नहीं पूछता कि आखिर अ ब ज और अ ज ब में क्या फर्क है , और व्यर्थ की बात के लिए क्यों छात्रों का खून करते हो ? दाल भात रोटी या भात दाल रोटी खायी , इसमें क्या रखा है । मगर इन परीक्षकों को क्या परवाह ? जो पुस्तक में लिखा है , चाहते हैं कि लड़के अक्षर - अक्षर रट डालें । और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोड़ा है । और आखिर इन बे सिर - पैर की बातों के रटने से फायदा ? इस रेखा पर वह लम्ब गिरा दो , तो आधार लम्ब से दूना होगा । पूछिए , इससे प्रयोजन ? दुगुना नहीं , चौगुना हो जाय या आधा ही रहे , मेरी बला से , लेकिन परीक्षा में पास होना है , तो सब खुराफात याद करनी पड़ेगी । कह न होना पड़े । अपने ऊपर जो विश्वास पैदा हुआ , वह फिर लुप्त हो गया और फिर चोरों का - सा जीवन काटने लगा । फिर सालाना इम्तिहान हुआ , और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मैं फिर पास हो गया और भाई साहब फिर फेल हो गये । मैंने बहुत मेहनत नहीं की , पर न जाने कैसे दरजे में अव्वल आ गया । मुझे खुद अचरज हुआ । भाई साहब ने प्राणों तक परिश्रम किया था । कोर्स का एक - एक शब्द चाट गये थे , दस बजे रात तक इधर , चार बजे भोर से उधर , छ : से साढ़े नौ तक स्कूल जाने के पहले । मुद्रा कांतिहीन हो गयी थी । मगर बेचारे फेल हो गये । मुझे उन पर दया आती थी । नतीजा सुनाया गया तो वह रो पड़े और मैं भी रोने लगा । अपने पास होने की खुशी आधी हो गयी । मैं भी फेल हो गया होता , तो भाई साहब को इतना दुःख न होता लेकिन विधि की बात कौन टाले । मेरे और भाई साहब के बीच अब केवल एक दरजे का अंतर और रह गया । मेरे मन में एक कुटिल भावना उदय हुई कि कहीं भाई साहब एक साल और फेल हो जायँ , तो मैं उनके बराबर हो जाऊँ , फिर वह किस आधार पर मेरी फजीहत कर सकेंगे , लेकिन मैंने इस कमीने विचार को दिल से बलपूर्वक निकाल डाला । आखिर वह मुझे मेरे हित के विचार से ही तो डाँटते हैं । मुझे इस वक्त अप्रिय लगता है अवश्य , मगर यह शायद उनके उपदेशों का ही कोई असर हो कि दनादन पास होता जाता हूँ और इतने अच्छे नंबरों से । अब की भाई साहब बहुत कुछ नर्म पड़ गये थे । कई बार मुझे डाँटने का अवसर पाकर भी उन्होंने धीरज से काम लिया । शायद अब वह खुद समझने लगे थे कि मुझे डाँटने का अधिकार उन्हें नहीं रहा , या रहा तो बहुत कम । मेरी स्वच्छन्दता भी बढ़ी । मैं उनकी सहिष्णुता का अनुचित लाभ उठाने लगा । मुझे कुछ ऐसी धारणा हुई कि मैं तो पास हो ही जाऊँगा पहूँ या न पढूँ – मेरी तकदीर बलवान है । इसलिए भाई साहब के डर से जो थोड़ा - बहुत पढ़ लिया करता था , वह बंद हुआ । मुझे कनकौए उड़ाने का नया शौक पैदा हो गया था और अब सारा समय पतंगबाजी ही की भेंट होता था ; फिर भी मैं भाई साहब का अदब करता था , और उनकी नजर बचाकर कनकौए उड़ाता था । माँझा देना ; कन्ने बाँधना , पतंग टूर्नामेंट की तैयारियाँ आदि समस्याएँ सब गुप्त रूप से हल की जाती थीं । मैं भाई साहब को यह संदेह न करने देना चाहता था कि उनका सम्मान और लिहाज मेरी नजरों में कम हो गया एक दिन संध्या समय होस्टल से दूर मैं एक कनकौआ लूटने बेतहाशा दौड़ा जा रहा था । आँखें आसमान की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर , जो मंद गति से झूमता पतंग की ओर चला जा रहा हो , मानो कोई आत्मा स्वर्ग से निकल कर विरक्त मन से नये संस्कार ग्रहण करने जा रही हो । बालकों की एक पूरी सेना लग्गे और झाड़दार बाँस लिये उसका स्वागत करने को दौड़ी आ रही थी । किसी को अपने आगे - पीछे की खबर न थी । सभी मानो उस पतंग के साथ आकाश में उड़ रहे थे , जहाँ सबकुछ समतल है , न मोटरकारें हैं , न ट्राम , न गाड़ियाँ । सहसा भाई साहब से मेरी मुठभेड़ हो गयी , जो शायद बाजार से लौट रहे थे । उन्होंने वहीं मेरा हाथ पकड़ लिया और उग्र भाव से बोले — इन बाजारी लौंडों के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते तुम्हें शर्म नहीं आती ? तुम्हें इसका कुछ लिहाज नहीं कि अब नीची जमात में नहीं हो , बल्कि आठवीं जमात में आ गये हो और मुझसे केवल एक दरजा नीचे हो । आखिर आदमी को कुछ तो अपनी पोजीशन का ख्याल करना चाहिए । एक जमाना था कि लोग आठवाँ दरजा पास कर नायब तहसीलदार हो जाते थे । मैं कितने ही मिडिलचियों को जानता हूँ जो आज अव्वल दरजे के डिप्टी मजिस्ट्रेट या सुपरिन्टेन्डेंट हैं । कितने ही आठवीं जमात वाले हमारे लीडर और समाचार पत्रों के संपादक हैं । बड़े - बड़े विद्वान उनकी मातहती में काम करते हैं और तुम उसी आठवें दरजे में आकर बाजारी लौंडों के साथ कनकौए के लिए दौड़ रहे हो ? मुझे तुम्हारी इस कमअकली पर दुःख होता है ! तुम जहीन हो , इसमें शक नहीं , लेकिन वह जेहन किस काम का , जो हमारे आत्मगौरव की हत्या कर डाले ? तुम अपने दिल में समझते होगे , मैं भाई साहब से महज एक दरजा नीचे हूँ , और अब उन्हें मुझको कुछ कहने का हक नहीं है ; लेकिन यह तुम्हारी गलती है । मैं तुमसे पाँच साल बड़ा हूँ और चाहे आज तुम मेरी ही जमात में आ जाओ और परीक्षकों का यही हाल रहा , तो निस्सन्देह अगले साल तुम मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साल बाद मुझसे आगे भी निकल जाओ - लेकिन मुझमें और तुममें जो पाँच साल का अन्तर है , उसे तुम क्या , खुदा भी नहीं मिटा सकता । मैं तुमसे पाँच साल बड़ा हूँ और हमेशा रहूँगा । मुझे दुनिया का और जिंदगी का जो तजुरबा है , तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते , चाहे तुम एम.ए. और डी.फिल . और डी.लिट् . ही क्यों न हो जाओ । समझ किताबें पढ़ने से नहीं आती , दुनिया देखने से आती है । हमारी अम्माँ ने कोई दरजा पास नहीं किया , और दादा भी शायद पाँचवीं - छठी जमात के आगे नहीं गए ; लेकिन हम दोनों चाहे सारी दुनिया की विद्या पढ़ लें , अम्माँ और दादा को हमें समझाने और सुधारने का अधिकार हमेशा रहेगा । केवल इसलिए नहीं कि वे हमारे जन्मदाता हैं ; बल्कि इसलिए कि उन्हें दुनिया का हमसे ज्यादा तजुरबा है और रहेगा । अमेरिका में किस तरह की राज्य - व्यवस्था है , और आठवें हेनरी ने कितने ब्याह किये और आकाश में कितने नक्षत्र हैं , यह बातें चाहे न मालूम हों , लेकिन हजारों ऐसी बातें हैं , जिनका ज्ञान उन्हें हम तुमसे ज्यादा है । दैव न करे आज मैं बीमार हो जाऊँ , तो तुम्हारे हाथ - पाँव फूल जायेंगे । दादा को तार देने के सिवा तुम्हें और कुछ न सूझेगा ; लेकिन तुम्हारी जगह दादा हों , तो किसी को तार न दें , न घबराएँ , न बदहवास हों । पहले खुद मरज पहचानकर इलाज करेंगे , उसमें सफल न हुए , तो किसी डाक्टर को बुलायेंगे । बीमारी तो खैर बड़ी चीज है । हम तुम तो इतना भी नहीं जानते कि महीने भर का खर्च महीना भर कैसे चले । जो कुछ दादा भेजते हैं , उसे हम बीस - बाईस तक खर्च कर डालते हैं , और फिर पैसे को मोहताज हो जाते हैं । नाश्ता बन्द हो जाता है , धोबी और नाई से मुँह चुराने लगते हैं , लेकिन जितना आज हम और तुम खर्च कर रहे हैं , उससे आधे में दादा ने अपनी उम्र का बड़ा भाग इज्जत और नेकनामी के साथ निभाया है और एक कुटुम्ब का पालन किया है , जिसमें सब मिलकर नौ आदमी थे । अपने हेडमास्टर साहब ही को देखो एम.ए. हैं कि नहीं , और यहाँ के एम.ए. । एक हजार रुपये पाते हैं , लेकिन उनके घर का इंतजाम कौन करता है ? उनकी बूढ़ी माँ । हेडमास्टर साहब की डिग्री यहाँ बेकार हो गयी। पहले खुद घर का इंतजाम करते थे । खर्च पूरा न पड़ता था । कर्जदार रहते थे । जब से उनकी माता जी ने प्रबन्ध अपने हाथ ले लिया है , जैसे घर में लक्ष्मी आ गयी है । तो भाईजान , यह गरूर दिल से निकाल डालो कि तुम मेरे समीप आ गये हो और अब स्वतन्त्र हो । मैं ( थप्पड़ दिखाकर ) इसका प्रयोग भी कर सकता हूँ । तुम्हें मेरी बातें जहर लग रही हैं । मैं उनकी इस नयी युक्ति से नतमस्तक हो गया । मुझे आज सचमुच अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई साहब के प्रति मेरे मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई । मैंने सजल आँखें से कहा - हरगिज नहीं । आप जो कुछ फरमा रहे हैं , बिल्कुल सच है और आपको उसके कहने का अधिकार है । भाई साहब ने मुझे गले लगा लिया और बोले - कनकौवे उड़ाने को मना नहीं करता । मेरा भी जी ललचाता है , लेकिन करूँ क्या ; खुद बेराह चलूँ , तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूँ ? यह कर्त्तव्य भी तो मेरे सिर है । संयोग से उसी वक्त एक कटा हुआ कनकौवा हमारे ऊपर से गुजरा । उसकी डोर लटक रही थी । लड़कों का एक दल पीछे - पीछे दौड़ा चला आता था । भाई साहब लम्बे हैं ही । उछलकर उसकी डोर पकड़ ली और बेतहाशा होस्टल की तरफ दौड़े । मैं पीछे - पीछे दौड़ रहा था ।

Comments

Popular posts from this blog

CCC form apply online

How to apply Walmart or best price card वालमार्ट या बेस्ट प्राइस का कार्ड कैसे बनवाये

Indian most popular place taj mahal